BA Semester-5 Paper-1 Sociology - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 समाजशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 समाजशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2797
आईएसबीएन :0

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समाजशास्त्रीय चिन्तन के अग्रदूत (प्राचीन समाजशास्त्रीय चिन्तन)

प्रश्न- भारत में समाजशास्त्र के उद्भव एवं विकास को संक्षेप में समझाइये।

उत्तर -

समाजशास्त्र का अर्थ किसी भी ऐसे व्यवस्थित ज्ञान से है जो सामाजिक जीवन, समाज-व्यवस्था व संगठन तथा सामाजिक सम्बन्धों से सम्बन्धित है। भारत में समाजशास्त्र की उत्पत्ति का इतिहास वास्तव में अत्यन्त प्राचीन है। भारत में समाजशास्त्र की उत्पत्ति व विकास का विवेचन निम्नवत् है -

A. प्राचीन भारत में समाजशास्त्र - समाजशास्त्र का नाम नया है, पर भारत की भूमि पर इसकी नींव अति प्राचीन है। भारत के प्राचीन समाजशास्त्री मनु याज्ञवल्क्य, भृगु, चाणक्य आदि हैं। इन्होने समाज के विभिन्न पक्षों के सम्बन्ध में न केवल अपने विचारों को व्यक्त किया है अपितु उन्हें ग्रन्थों के रूप में प्रस्तुत भी किया है। मनु द्वारा लिखित 'मनुस्मृति' और चाणक्य रचित 'अर्थशास्त्र' में वेद, उपनिषद, धर्मसूत्र, रामायण, महाभारत, गीता, पुराण, स्मृतियाँ आदि ग्रन्थों में प्राचीन भारत के लोगों के जीवन से सम्बन्धित प्रायः सभी विषयों में विचार व्यक्त किए गए है। यद्यपि उन अभिव्यक्तियों में धर्म का प्रभाव व धार्मिक पृष्ठभूमि सुस्पष्ट रूप मे देखने को मिलती है, तथापि आज भी इन्हीं ग्रन्थों की सहायता लेकर संयुक्त परिवार प्रथा, वर्ण व आश्रम व्यवस्था, कर्म का सिद्धान्त, गाँव- पंचायत, पुरुषार्थ, धर्म आदि गम्भीर विषयों पर वैज्ञानिक विश्लेषण व शोध कार्य किया जाता है। प्राचीन भारत के सामाजिक संगठन का प्रमुख आधार वर्ण-व्यवस्था थी। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त के एक मंत्र में वर्णों की उत्पत्ति का हाल मिलता है। इसके अनुसार पुरुष के मुँह से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और पैर से शूद्र उत्पन्न हुए। यह वर्णन रूपकमय मालूम होता है। इसी वैदिक सिद्धान्त के आधार पर स्मृतिकारों ने समाज को चार वर्णों में विभाजित करना स्वीकार किया। मनु ने प्रत्येक वर्ण के कार्यों को भी निश्चित रूप दिया। मुख बोलने का साधन है, इसलिए ब्राह्मणों का कार्य अध्ययन करना, शिक्षा देना, पूजा-पाठ और यज्ञ आदि करना था जिससे वेदों की रक्षा हो सके। बाहु शक्ति का द्योतक है, इसलिए क्षत्रियों का कार्य शक्ति से सम्बन्धित था। इसी प्रकार वैश्यों का कार्य कृषि करना, व्यापार करना आदि था और पैरों से उत्पत्ति होने के कारण शूद्रों का कार्य ऊपर के तीनों वर्णों की सेवा करना था। प्राचीन काल से ही परिवार को समाज की एक अति महत्वपूर्ण संस्था के रूप में स्वीकार किया गया। हिन्दू समाज में आदर्श परिवार के प्रमुख आधारों का उल्लेख महाभारत आदि में मिलता है। 
भारतवर्ष में जितनी भी सामाजिक संस्थाएँ हैं उनमें हिन्दू विवाह विशेष उल्लेखनीय है। इसका कारण यह है कि उत्तर-वैदिक युग से ही एक हिन्दू जीवन में गृहस्थ आश्रम को बहुत महत्व दिया गया। मनु ने स्वीकार किया कि जैसे सब एक-दूसरे के सहारे जीते हैं, वैसे ही सब प्राणी भाग्य कर्म से जीवन धारण करते हैं। वैदिक साहित्य के अध्ययन से पता चलता है कि उस समय में स्त्रियों की स्थिति उनके आत्मविकास, शिक्षा, विवाह, सम्पत्ति आदि विषयों में प्रायः पुरुषों के समान थी। पत्नी के रूप में तो उनकी स्थिति बहुत ऊँची थी। ऋग्वेद के मत में पत्नी ही घर है। महाभारत के अनुसार वह घर घर नहीं जिस घर में पत्नी नहीं।

B. आधुनिक युग में समाजशास्त्र की उत्पत्ति व विकास - भारत में इस विज्ञान की प्रतिस्थापना सर्वप्रथम सन् 1917 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में हुई थी और इसके संस्थापक थे प्रो. बृजेन्द्रनाथ शील थे। इसके बाद बम्बई विश्वविद्यालय में प्रो. पैट्रिक गिडिंग्स की देख-रेख में समाजशास्त्र का विषय पढ़ाना प्रारम्भ हुआ, तत्पश्चात मैसूर विश्वविद्यालय में सन् 1920 में इस विषय को बी. ए. की कक्षाओं में तीन पेपरों के साथ एक गौण विषय के रूप में पढ़ाया जाने लगा। इस विश्वविद्यालय ने अण्डर ग्रेजुएट कक्षाओं में इस विषय को सन् 1923 में पढ़ाना आरम्भ किया और अब बी. ए. तथा एम. ए. की कक्षाओं में इसे पढ़ाया जाता है। आन्ध्र विश्वविद्यालय ने भी 1923 में इस विषय को अपने पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर लिया। सन् 1947 के पश्चात इस विज्ञान का विस्तार तेजी से होने लगा। समाजशास्त्र के इतिहास को निम्न तीन युगों में विभाजित किया जा सकता है

1. अनौपचारिक संस्थापन युग - अनौपचारिक संस्थापन युग सन् 1917 से पूर्व का काल है। - इस काल को अनौपचारिक संस्थापन युग इसलिए कहा गया है क्योंकि इस अवधि में औपचारिक रूप से समाजशास्त्र का शुभागमन भारत भूमि पर नहीं हुआ था, फिर भी समाजशास्त्रीय अध्ययन अन्य रूप में किया जा रहा था। इस युग में इस बात को भी स्वीकार कर लिया गया कि केवल धार्मिक ग्रन्थों में ही नहीं अपितु अनेक विद्वानों की पुस्तकों का भी पुनरावलोकन करने पर उस समय भी अनेक संस्थाओं की उपस्थिति के साक्ष्य मिल जायेंगे। प्राचीन ग्रन्थों का समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में जिन भारतीय विद्वानों ने अध्ययन व विश्लेषण किया उनमें प्रो. विनय कुमार सरकार, प्रो. बृजेन्द्रनाथ शील, डा. भगवान दास तथा प्रो. केवल मोटवानी के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। प्रो. शील ने “Positive Science of the Ancient Hindus” पुस्तक में पुरातन हिन्दुत्व की निश्चयात्मक व्याख्या सामाजिक-वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत की। डॉ. भगवानदास ने “ The Science of Social Organization” (1909) में मनु की समाज व्यवस्था या वर्णाश्रम व्यवस्था की व्याख्या व विवेचना इस प्रकार प्रस्तुत की कि उसके आधार पर आधुनिक समय में बिखरती हुई भारतीय सामाजिक व्यवस्था को फिर से संगठित किया जा सकता है। प्रो. केवल मोटवानी ने भी अपनी पुस्तक “ India's Ancient Literature: An Indroductory Survey” में प्राचीन परम्पराओं के सन्दर्भ में हिन्दुत्व की वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की। इन विद्वानों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।

2. औपचारिक प्रतिस्थापन व विकास युग - इस युग का सूत्रपात सन् 1917 से होता है जबकि प्रो. बृजेन्द्रनाथ शील की प्रेरणा से कलकत्ता विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग के अन्तर्गत ही समाजशास्त्र विभाग की स्थापना हुई। उस समय प्रो. बृजेन्द्रनाथ शील दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक थे, फिर भी उन्होंने समाजशास्त्रीय अध्ययन के क्षेत्र में अनुकरणीय रुचि दर्शायी एवं Comparative Sociology पर विशद् व्याख्यान दिया तथा 'Comparative Study of Christian and Vaishnava Tradition' व Origin of Races' नामक पुस्तकों की रचना की। इससे समाजशास्त्रीय अध्ययन की लोकप्रियता बढ़ी। सन् 1917 में ही प्रो. शील मैसूर विश्वविद्यालय के उपकुलपति नियुक्त हुए तथा सन् 1920 के लगभग इनके प्रयास से समाजशास्त्र विषय को बी. ए. की कक्षाओं में तीन अनिवार्य विषयों के साथ एक गौण विषय के रूप में पढ़ाया जाने लगा। मैसूर विश्वविद्यालय के बाद बम्बई विश्वविद्यालय में सन् 1921 में एक अंग्रेज समाजशास्त्री प्रोफेसर पैट्रिक गिड्डिस की देख-रेख व निर्देशन में समाजशास्त्र और नागरिकशास्त्र का एक मिला-जुला विभाग खुला। सन् 1924 में प्रो. गोविन्द सदाशिव घुरिये ने बम्बई विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग की अध्यक्षता की। डॉ. घुरिये ने सन् 1952 में Indian Sociological Society की स्थापना की और इस समिति के तत्वावधान में “Sociological Bulletin” का प्रकाशन स्वयं उसके सम्पादक का उत्तरदायित्व सम्भालते हुए किया। डॉ. घुरिये ने प्रायः 40 समाजशास्त्रीय पुस्तकों की रचना की और उनके माध्यम से पाश्चात्य देशों से आए हुए समाजशास्त्र को एक मौलिक भारतीय स्वरूप प्रदान करने में सफल हुए।

डॉ. कपाड़िया ने हिन्दू नातेदारी तथा भारतीय विवाह एवं परिवार के सम्बन्ध में अपने अध्ययन तथा विश्लेषण को अपनी दो प्रख्यात पुस्तकों “ Hindu Kinship ” (1947) तथा “Marriage and family in India” (1956) में प्रस्तुत किया है। डॉ. घुरिये ने भारतीय जाति तथा वर्ग व्यवस्था के सम्बन्ध में अपने सिद्धान्त को अपनी पुस्तक “ Caste and Class in India (1957) प्रस्तुत किया है। डॉ. घुरिये ने अपनी पुस्तक “ Family and Kin in Indo-European Culture” (1955) में भारतीय तथा भारतीय देशों की परिवार संस्था का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया था। डॉ. प्रभु ने “Hindu Social Organization” (1954) में जाति प्रथा, आश्रम व्यवस्था आदि विषयों का सविस्तार विश्लेषण प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों के आधार पर आलोचनात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है। लखनऊ विश्वविद्यालय में सन् 1921 में डॉ. राधाकमल की अध्यक्षता में समाजशास्त्र का अध्ययन अर्थशास्त्र विभाग के अन्तर्गत प्रारम्भ हुआ। डॉ. राधाकमल मुखर्जी लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रख्यात J. K. Institute of Social Science के संस्थापक प्रोफेसर थे। डॉ. मुखर्जी ने क्षेत्रीय समाजशास्त्र, मूल्यों के समाजशास्त्र, कला के समाजशास्त्र, संस्कृति व सभ्यता के समाजशास्त्र के क्षेत्र में अपने अनुपम योगदान के कारण अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का नाम रोशन किया। इनके द्वारा रचित प्रायः 52 पुस्तकें भारतीय समाजशास्त्र की अमूल्य निधि हैं।

समाजशास्त्र की लखनऊ परम्परा के द्वितीय प्रतिभाशाली व प्रख्यात विद्वान प्रो. धुर्जटी प्रसाद मुखर्जी थे। इन्होंने सन् 1955 में देहरादून में प्रथम भारतीय समाज विज्ञान सम्मेलन के अध्यक्ष-पद से जो भाषण दिया था वह भारतीय समाजशास्त्र का एक मूल्यवान दस्तावेज है। एक शिक्षक के रूप में डी. पी. मुखर्जी ने अपने विद्यार्थियों को समाजशास्त्रीय घटनाओं के प्रति अत्यधिक जागरूक बनाया और उन्हें इस बात की प्रेरणा प्रदान की कि वे सामाजिक समस्याओं का आलोचनात्मक विश्लेषणात्मक तथा निष्पक्ष रूप से अध्ययन करें और उन्हें समझने का प्रयत्न करें। भारत की सामाजिक संरचना या सामाजिक जीवन का मोटे तौर पर अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि परम्परागत रूप में जाति प्रथा, संयुक्त परिवार तथा पंचायत ये तीन संस्थाएँ भारतीय सामाजिक जीवन व संगठन की आधारशिला हैं। रिजले के अनुसार, अनुलोम विवाह के द्वारा प्रजातीय मिश्रण के फलस्वरूप ही विभिन्न जातियाँ उत्पन्न हुई, जबकि हट्टन ने अपने अध्ययन के आधार पर इस बात पर बल दिया कि सामाजिक निषेधों के प्रति लोगों का मनोभाव, पेशों के आधार पर समाज का विभाजन तथा समाज में विचित्र और अपरिचित वस्तुओं एवं व्यक्तियों के प्रति कुसंस्कार ने ही भारतीय समाज के ढाँचे का आकार बनाया है।

उत्तर प्रदेश में काशी विद्यापीठ में भी समाजशास्त्र का अध्ययन लखनऊ विश्वविद्यालय के समान ही पुराना है। यहाँ भी सन् 1921 से ही समाजशास्त्र का अध्ययन स्नातक स्तर पर होता आया है। स्नातकोत्तर स्तर पर एक स्वतन्त्र विषय के रूप में समाजशास्त्र का अध्ययन सन् 1964 से ही प्रारम्भ हो सका है।

सामान्य रूप से यह कहा जा सकता है कि आधुनिक भारत में केवल भारतीय परम्परा, मूल्य, प्रतीक, संस्कृति, आदर्श, सामाजिक व्यवस्था व सामाजिक संस्थाओं के सम्बन्ध में नहीं, अपितु भारतीय ग्रामीण समुदायों के सम्बन्ध में भी अध्ययन हुए हैं और हो रहे है।

3. व्यापक प्रसार युग - आधुनिक प्रवृत्ति (दो) - भारत में समाजशास्त्र के व्यापक प्रसार का युग 1947 से प्रारम्भ होता है। जब एक स्वतन्त्र विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र का अध्ययन एक के बाद दूसरे विश्वविद्यालय में तेजी से फैलता गया। अनेक विश्वविद्यालयों के अतिरिक्त देश के तकनीकी एवं चिकित्सा संस्थानों और सामाजिक शोध संस्थानों में भी समाजशास्त्र ने अपना 'घर' बना लिया है। उदाहरणार्थ आई. आई. टी. कानपुर व दिल्ली तथा एच. बी. टी. आई. कानपुर में समाजशास्त्र का अध्ययन होता है। आई. आई. टी. कानपुर तथा दिल्ली में तो समाजशास्त्र पर शोधकार्य करने की भी सुविधा उपलब्ध है। इन संस्थानों में औद्योगिक समाजशास्त्र तथा नगरीय समाजशास्त्र के अध्ययन पर विशेष बल दिया जाता है क्योंकि इन विषयों का प्रत्यक्ष सम्बन्ध इन संस्थानों में पढ़ाए जाने वाले विषयों से होता है। केवल तकनीकी संस्थानों में ही नहीं, अपितु देश के अनेक कृषि विश्वविद्यालयों एवं संस्थानों में भी समाजशास्त्र को अपना स्थान प्राप्त हो चुका है।

जिन भारतीय समाजशास्त्रियों ने भारत में समाजशास्त्र के संवर्द्धन व विकास में अपना अमूल्य योगदान दिया है उनमें प्रो. एम. एन. श्रीनिवास, प्रो. बी. डामले, प्रो. ए. आर. देसाई, प्रो. विक्टर डिसूजा, प्रो. एस. सी. दुबे, प्रो. एम. एस. गोरे, प्रो. टी. एन. मदान, प्रो. रामकृष्ण मुखर्जी, प्रो. पी. एन. मुखर्जी, प्रो. टी. के. ओमेन, प्रो. वी. के. आर. वी. राव, श्रीमती सी. पार्वाथम्भा, सूभा चिटनिस, नीरा देसाई, रोमिला थापर, रत्ना नायडू तथा प्रमिला कपूर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- समाजशास्त्र के उद्भव की ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए।
  2. प्रश्न- समाजशास्त्र के उद्भव में सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  3. प्रश्न- समाजशास्त्र के विकास में सोलहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक के वैज्ञानिक चिन्तन के योगदान की समीक्षा कीजिए।
  4. प्रश्न- औद्योगिक क्रान्ति क्या है? इसके प्रमुख प्रभाव बताइए।
  5. प्रश्न- औद्योगिक क्रान्ति के प्रमुख प्रभाव बताइए।
  6. प्रश्न- औद्योगिक क्रान्ति के सामाजिक प्रभाव बताइये।
  7. प्रश्न- औद्योगिक क्रान्ति के आर्थिक प्रभाव बताइए।
  8. प्रश्न- औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप समाज व अर्थव्यवस्था पर क्या अच्छे प्रभाव हुए।
  9. प्रश्न- औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप समाज व अर्थव्यवस्था पर क्या बुरे प्रभाव हुए।
  10. प्रश्न- राजनीतिक व्यवस्था से क्या आशय है? भारतीय राजनीतिक व्यवस्था के निर्धारक तत्वों को बताइए।
  11. प्रश्न- भारतीय राजनीतिक व्यवस्था के निर्धारक तत्वों को बताइए।
  12. प्रश्न- औद्योगिक क्रान्तियों ने कैसे समाजशास्त्र की आधारशिला एक स्वतन्त्र अध्ययन के रूप में रखी? विवेचना कीजिए।
  13. प्रश्न- औद्योगिक क्रान्ति के क्या सामाजिक एवं राजनीतिक परिणाम हुये?
  14. प्रश्न- भारत में समाजशास्त्र के उद्भव एवं विकास को संक्षेप में समझाइये।
  15. प्रश्न- ज्ञानोदय से आप क्या समझते हैं। वैज्ञानिक पद्धति की प्रकृति और सामाजिक घटनाओं के अध्ययन में वैज्ञाकि पद्धति के प्रयोग का वर्णन कीजिए।
  16. प्रश्न- "समाजशास्त्र एक नवीन विज्ञान है।" विवेचना कीजिए।
  17. प्रश्न- फ्रांस की क्रान्ति से आप क्या समझते हैं?
  18. प्रश्न- समाजशास्त्र को परिभाषित कीजिये।
  19. प्रश्न- भारत में समाजशास्त्र का महत्व बताइये।
  20. प्रश्न- कॉम्ट के प्रत्यक्षवाद की विवेचना कीजिए।
  21. प्रश्न- कॉम्टे द्वारा प्रतिपादित चिन्तन की तीन अवस्थाओं के नियम की उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।
  22. प्रश्न- कॉम्टे की प्रमुख देन की परीक्षा कीजिये।
  23. प्रश्न- अगस्त कॉम्ट का जीवन परिचय दीजिए।
  24. प्रश्न- कॉम्ट के मानवता के धर्म का नैतिकता आधार क्या है?
  25. प्रश्न- संस्तरण के आधार अथवा सिद्धान्त बताइये।
  26. प्रश्न- समाजशास्त्र में प्रत्यक्षवादी पद्धतिशास्त्र की मुख्य विशेषतायें कौन-कौन सी हैं?
  27. प्रश्न- कॉम्ट के विज्ञानों का वर्गीकरण प्रत्यक्षवाद से किस प्रकार सम्बन्धित है?
  28. प्रश्न- कॉम्ट की प्रमुख देन की परीक्षा कीजिए।
  29. प्रश्न- प्रत्यक्षवाद क्या है?
  30. प्रश्न- कॉम्टे के प्रत्यक्षवाद को परिभाषित कीजिये।
  31. प्रश्न- तात्विक अवस्था क्या है?
  32. प्रश्न- सामाजिक डार्विनवाद से आपका क्या तात्पर्य है?
  33. प्रश्न- स्पेन्सर द्वारा प्रस्तुत 'सामाजिक उद्विकास' के सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  34. प्रश्न- हरबर्ट स्पेन्सर का जीवन परिचय दीजिए।
  35. प्रश्न- हरबर्ट स्पेन्सर के 'सामाजिक नियन्त्रण के साधन' सम्बन्धी विचार बताइए।
  36. प्रश्न- स्पेन्सर द्वारा प्रतिपादित सावयवी सिद्धान्त की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
  37. प्रश्न- समाजशास्त्र के क्षेत्र में हरबर्ट स्पेन्सर के योगदान का उल्लेख कीजिए।
  38. प्रश्न- अधिसावयव उद्विकास की अवधारणा पर प्रकाश डालिए।
  39. प्रश्न- दुर्खीम के सामाजिक एकता के सिद्धान्त की विस्तृत विवेचना कीजिए।
  40. प्रश्न- यान्त्रिक व सावयवी एकता से सम्बन्धित वैधानिक व्यवस्थाएं क्या हैं?
  41. प्रश्न- दुर्खीम के श्रम विभाजन सिद्धान्त की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए।
  42. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त को समझाइए।
  43. प्रश्न- समाजशास्त्र के विकास में दुर्खीम का योगदान बताइए।
  44. प्रश्न- दुर्खीम के आत्महत्या सिद्धान्त की आलोचनात्मक जाँच कीजिए।
  45. प्रश्न- दुर्खीम द्वारा वर्णित आत्महत्या के प्रकारों की विवेचना कीजिए।
  46. प्रश्न- दुर्खीम के आत्महत्या सिद्धान्त के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  47. प्रश्न- 'आत्महत्या सामाजिक कारकों की उपज है न कि वैयक्तिक कारकों की। दुर्खीम के इस कथन की विवेचना कीजिए।
  48. प्रश्न- दुखींम का समाजशास्त्रीय योगदान बताइये।
  49. प्रश्न- दुखींम ने समाजशास्त्र की अध्ययन पद्धति को समृद्ध बनाया, व्याख्या कीजिए।
  50. प्रश्न- दुर्खीम की कृतियाँ कौन-कौन सी हैं? स्पष्ट कीजिए।
  51. प्रश्न- इमाइल दुर्खीम के जीवन-चित्रण तथा प्रमुख कृतियों पर प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- कॉम्ट तथा दुखींम की देन की तुलना कीजिए।
  53. प्रश्न- श्रम विभाजन समझाइये।
  54. प्रश्न- दुर्खीम ने यान्त्रिक तथा सावयवी एकता में अन्तर किस प्रकार किया है?
  55. प्रश्न- श्रम विभाजन के कारण बताइए।
  56. प्रश्न- दुखींम के अनुसार श्रम विभाजन के कौन-कौन से परिणाम घटित हुए? स्पष्ट कीजिए।
  57. प्रश्न- दुर्खीम के पद्धतिशास्त्र की विशेषताएँ लिखिए।
  58. प्रश्न- श्रम विभाजन, सावयवी एकता से किस प्रकार सम्बन्धित है?
  59. प्रश्न- यान्त्रिक संश्लिष्टता तथा सावयविक संश्लिष्टता के बीच अन्तर कीजिए।
  60. प्रश्न- दुर्खीम के सामूहिक प्रतिनिधान के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  61. प्रश्न- दुर्खीम का पद्धतिशास्त्र पूर्णतया समाजशास्त्री है। विवेचना कीजिए।
  62. प्रश्न- सामाजिक एकता क्या है?
  63. प्रश्न- आत्महत्या का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  64. प्रश्न- अहम्वादी आत्महत्या के सम्बन्ध में दुर्खीम के विचारों की विवेचना कीजिए।
  65. प्रश्न- दुर्खीम के अनुसार आत्महत्या के कारणों की विवेचना कीजिए।
  66. प्रश्न- सामाजिक एकता पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  67. प्रश्न- सामाजिक तथ्य पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  68. प्रश्न- दुर्खीम द्वारा प्रतिपादित 'समाजशास्त्रीय पद्धति' के नियम क्या हैं?
  69. प्रश्न- दुखींम की सामाजिक चेतना की अवधारणा का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए।
  70. प्रश्न- परेटो की वैज्ञानिक समाजशास्त्र की अवधारणा क्या है?
  71. प्रश्न- परेटो के अनुसार समाजशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं?
  72. प्रश्न- परेटो की वैज्ञानिक समाजशास्त्र की अवधारणा का वर्णन कीजिए।
  73. प्रश्न- पैरेटो ने समाजशास्त्र को एक तार्किक प्रयोगात्मक विज्ञान नाम क्यों दिया? उनकी तार्किक प्रयोगात्मक पद्धति की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- विशिष्ट चालक की अवधारणा का वर्णन कीजिए।
  75. प्रश्न- भ्रान्त-तर्क की अवधारणा स्पष्ट कीजिए।
  76. प्रश्न- "इतिहास कुलीन तन्त्र का कब्रिस्तान है।" इस कथन की विवेचना कीजिए।
  77. प्रश्न- पैरेटो की तार्किक एवं अतार्किक क्रियाओं की अवधारणा स्पष्ट कीजिए।
  78. प्रश्न- विलफ्रेडो परेटो की प्रमुख कृतियों के साथ संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  79. प्रश्न- विशिष्ट चालक का महत्व बताइए।
  80. प्रश्न- भ्रान्त-तर्क का वर्गीकरण कीजिए।
  81. प्रश्न- परेटो का समाजशास्त्र में योगदान संक्षेप में बताइए।
  82. प्रश्न- तार्किक और अतार्किक क्रिया की तुलना कीजिए।
  83. प्रश्न- पैरेटो के अनुसार शासकीय तथा अशासकीय अभिजात वर्ग की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?
  84. प्रश्न- कार्ल मार्क्स के 'ऐतिहासिक भौतिकवाद' से आप क्या समझते हैं?
  85. प्रश्न- मार्क्सवादी सामाजिक परिवर्तन की धारणा क्या है? समझाइए।
  86. प्रश्न- मार्क्स के अनुसार वर्ग संघर्ष का वर्णन कीजिए।
  87. प्रश्न- मार्क्स के विचारों में समाज में वर्गों का जन्म कब और क्यों हुआ?
  88. प्रश्न- मार्क्स ने वर्गों की सार्वभौमिक प्रकृति को कैसे स्पष्ट किया है?
  89. प्रश्न- पूर्व में विद्यमान वर्ग संघर्ष की धारणा में मार्क्स ने क्या जोड़ा?
  90. प्रश्न- मार्क्स ने 'वर्ग संघर्ष' की अवधारणा को किस अर्थ में प्रयुक्त किया?
  91. प्रश्न- मार्क्स के वर्ग संघर्ष के विवेचन में प्रमुख कमियाँ क्या रही हैं?
  92. प्रश्न- वर्ग और वर्ग संघर्ष की विवेचना कीजिए।
  93. प्रश्न- पूँजीवादी समाज में अलगाव की स्थिति तथा इसके कारकों की विवेचना कीजिए।
  94. प्रश्न- संक्षेप में अलगाव के स्वरूपों को समझाइये।
  95. प्रश्न- मार्क्स ने पूँजीवाद की प्रकृति के विनाश के किन कारणों का उल्लेख किया है?
  96. प्रश्न- पूँजीवाद में ही वर्ग संघर्ष अपने चरम सीमा पर क्यों पहुँचा?
  97. प्रश्न- मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्त की समीक्षा कीजिए।
  98. प्रश्न- 'कार्ल मार्क्स के अनुसार ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या कीजिए।
  99. प्रश्न- ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या कीजिए।
  100. प्रश्न- मार्क्स के ऐतिहासिक युगों के विभाजन को स्पष्ट कीजिए।
  101. प्रश्न- मार्क्स के ऐतिहासिक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  102. प्रश्न- द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद से आप क्या समझते हैं? व्याख्या कीजिये।
  103. प्रश्न- समाजशास्त्र को मार्क्स का क्या योगदान मिला?
  104. प्रश्न- मार्क्स ने समाजवाद को क्या योगदान दिया?
  105. प्रश्न- साम्यवादी समाज के निर्माण के लिये मार्क्स ने क्या कार्य पद्धति सुझाई?
  106. प्रश्न- मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या किस तरह से की?
  107. प्रश्न- मार्क्स की सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या में प्रमुख कमियाँ क्या रहीं?
  108. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के बारे में मार्क्स के विचारों को स्पष्ट कीजिए।
  109. प्रश्न- कार्ल मार्क्स का संक्षिप्त जीवन-परिचय तथा प्रमुख कृतियों का वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  111. प्रश्न- द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की मुख्य विशेषताएँ बताइये।
  112. प्रश्न- सामाजिक विकास की विभिन्न अवस्थाएँ क्या हैं?
  113. प्रश्न- वर्ग को लेनिन ने किस तरह से परिभाषित किया?
  114. प्रश्न- आदिम साम्यवादी युग में वर्ग और श्रम विभाजन का कौन सा स्वरूप पाया जाता था?
  115. प्रश्न- दासत्व युग में वर्ग व्यवस्था की व्याख्या कीजिए।
  116. प्रश्न- सामंती समाज में वर्ग व्यवस्था का कौन-सा स्वरूप पाया जाता था?
  117. प्रश्न- फ्रांस की क्रान्ति के महत्व एवं परिणामों की विवेचना कीजिए।
  118. प्रश्न- कार्ल मार्क्स के इतिहास दर्शन का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
  119. प्रश्न- कार्ल मार्क्स के अनुसार वर्ग की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  120. प्रश्न- मार्क्स द्वारा प्रस्तुत वर्ग संघर्ष के कारणों की विवेचना कीजिए।
  121. प्रश्न- समाजशास्त्र के संघर्ष सम्प्रदाय में मार्क्स और डेहरनडार्फ की तुलना कीजिए।
  122. प्रश्न- मार्क्स के विचारों का मूल्यांकन कीजिए।
  123. प्रश्न- "हीगल ने 'आत्म-चेतना' के अलगाव की चर्चा की है जबकि मार्क्स ने श्रम के अलगाव की।" स्पष्ट कीजिए।
  124. प्रश्न- मार्क्स के राज्य सम्बन्धी विचारों को स्पष्ट कीजिए।
  125. प्रश्न- कार्ल मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद के आवश्यक लक्षणों की आलोचनात्मक परीक्षा कीजिए।
  126. प्रश्न- सामाजिक विकास की विभिन्न अवस्थाएँ क्या हैं?
  127. प्रश्न- सर्वहारा क्रान्ति की विशेषताएँ बताइये।
  128. प्रश्न- मार्क्स के अनुसार अलगाववाद के लिए उत्तरदायी कारकों पर प्रकाश डालिए।
  129. प्रश्न- मार्क्स का आर्थिक निश्चयवाद का सिद्धान्त बताइये। 'सामाजिक परिवर्तन' के लिए इसकी सार्थकता बताइए।
  130. प्रश्न- सत्ता की अवधारणा स्पष्ट कीजिए। सत्ता कितने प्रकार की होती है?
  131. प्रश्न- मैक्स वेबर द्वारा वर्णित सत्ता के प्रकारों की व्याख्या कीजिए।
  132. प्रश्न- मैक्स वेबर के अनुसार समाजशास्त्र को परिभाषित कीजिए।
  133. प्रश्न- वेबर के धर्म का समाजशास्त्र क्या है? बताइए।
  134. प्रश्न- आदर्श प्रारूप की धारणा का वर्णन कीजिए।
  135. प्रश्न- मैक्स वेबर के "पूँजीवाद की आत्मा' सम्बन्धी विचारों की संक्षिप्त व्याख्या कीजिये।
  136. प्रश्न- वेबर के समाजशास्त्र में योगदान पर एक लेख लिखिये।
  137. प्रश्न- मैक्स वेबर का संक्षिप्त जीवन-परिचय दीजिए।
  138. प्रश्न- मैक्स वेबर की धर्म के समाजशास्त्र की कौन-कौन सी विशेषताएँ हैं? स्पष्ट करें।
  139. प्रश्न- मैक्स वेबर की प्रमुख रचनाएँ बताइए।
  140. प्रश्न- मैक्स वेबर का पद्धतिशास्त्र क्या है? इसकी विशेषताएँ बताइये।
  141. प्रश्न- वेबर का धर्म का सिद्धान्त क्या है?
  142. प्रश्न- मैक्स वेबर के आदर्श प्रारूप पर टिप्पणी लिखिए।
  143. प्रश्न- प्रोटेस्टेण्ट आचार क्या है? व्याख्या कीजिए।
  144. प्रश्न- मैक्स वेबर के सामाजिक क्रिया सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  145. प्रश्न- सामाजिक विचार के सन्दर्भ में मैक्स वेबर के योगदान का परीक्षण कीजिए।
  146. प्रश्न- शक्ति की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  147. प्रश्न- दुर्खीम एवं वेबर के धर्म के सिद्धान्त की तुलना आप किस तरह करेंगें?
  148. प्रश्न- सामाजिक विज्ञान की पद्धति के निर्माण में मैक्स वेबर के योगदान का वर्णन कीजिए।
  149. प्रश्न- वेबर द्वारा प्रस्तुत 'सामाजिक क्रिया' के वर्गीकरण का परीक्षण कीजिए।
  150. प्रश्न- अन्तः क्रिया का क्या अर्थ है? अन्तःक्रिया के प्रकारों का उल्लेख करिये।
  151. प्रश्न- प्रतीकात्मक अन्तः क्रियावाद क्या है? प्रतीकात्मक अन्तर्क्रियावादी सिद्धान्त की मान्यताएँ समझाइये।
  152. प्रश्न- जार्ज हरबर्ट मीड का प्रतीकात्मक अन्तः क्रियावाद बतलाइये।
  153. प्रश्न- मीड का भूमिका ग्रहण का सिद्धान्त समझाइये।
  154. प्रश्न- प्रतीकात्मक का क्या अर्थ है?
  155. प्रश्न- प्रतीकात्मकवाद की विशेषताएँ बताइये।
  156. प्रश्न- प्रतीकों के भेद या प्रकार बताइये।
  157. प्रश्न- सामाजिक जीवन में प्रतीकों का क्या महत्व है?
  158. प्रश्न- टालकॉट पारसन्स का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी कृतियों का उल्लेख कीजिये।
  159. प्रश्न- टालकाट पारसन्स का "सामाजिक क्रिया" का सिद्धान्त प्रस्तुत कीजिये।
  160. प्रश्न- टालकॉट पारसन्स का सामाजिक व्यवस्था सिद्धान्त का वर्णन कीजिये।
  161. प्रश्न- आर. के. मर्टन का संक्षिप्त जीवन परिचय व रचनाएँ लिखिए।
  162. प्रश्न- आर. के. मर्टन की आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिये।
  163. प्रश्न- आर. के. मर्टन की बौद्धिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिये।
  164. प्रश्न- मध्य-अभिसीमा सिद्धान्त का अर्थ व प्रकृति को समझाइये।
  165. प्रश्न- आर. के. मर्टन का "प्रकट एवं अव्यक्त कार्य सिद्धान्त को समझाइये।
  166. प्रश्न- टॉलकाट पारसन्स के पैटर्न वैरियबल की चर्चा कीजिये।

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